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मैं कहां हूं?

मुंह नीचे की तरफ़ लटकाए हुए
लेकिन समझ न पाए, कि कहां जाएं?
यह कैसा दुविधा हैं?
एक अजीब सा अहसास हैं
जैसे मेरे अंदर किसी और का वास हैं
बैठे बैठे सोच में बह जाता हूं
खाली आंखों से,
एक तस्वीर होने सा अहसास दिलाता हूं
आस पास वालों को लगता है
कि मैं कुछ कर नहीं रहा
मगर ये कैसे समझाऊं
कि मेरा व्यस्त दिमाग कभी चुप नहीं रहा
हमेशा थका हुआ खुद को पाता हूं
पर खुद को मजबूत बनाना चाहता हूं
क्या कोई सुन सकता है?
मेरे अंदर की आवाज़
है कोई?
जो मेरी पहचान
मेरा वजूद
ये सब बनाएं रख सकता है?
ये खाली और काली दुनिया मेरी नहीं
मेरी जिंदगी बीत रही थी और कहीं
मैं नहीं जानता कि मैं कहां हूं
देख रहा किसी कि राह हूं
मुझे मदद चाहिए खुद को पाने में
जो खोया है वो सब वापिस लाने में।

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37 Points

Written by Nidhi Dahiya

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Lutfia Khan

wow!! this is brilliant

Riya Rajkotiya

Just Awesome

Riya Rajkotiya

I Just love reading your poems

Atul

Nice

Sheetal Malik

Nice dii just awesome

Atul

Good

Khushi Patel

This poem is very very good

Amna Alim

you write so well!

Monu malik

Nice poem ,energetic also

Brinda S

Very informative!

Ankit

Nice

Sheetal Malik

Nice dii just awesome

Mohit Dahiya

Amazing

Kritika Bhair

Amazing

Sushmitha Subramani

Fabulous. Well done

Jigyasa vashistha

Thanks alot for this article. Sending you positive vibes✨❤

Jigyasa vashistha

✨❤

Yashaswini Bhat

brilliant work

Yashaswini Bhat

I fell the soul of your poem. Great work.